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गुरु पूर्णिमा का महत्व

यह आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा है जिसमें गुरु की पूजा का विधान है। पूरे भारत में यह पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन हमें अपने गुरुओं को आसन प्रदान कर के अपनी श्रद्धानुसार उनकी पूजन अर्चन करके उनसे आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए. कहा जाता है कि इस दिन से चार महीने तक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और वेदों के सार ब्रह्मसूत्र की रचना भी वेद व्यास ने आज ही के दिन की थी। वेद व्यास ने ही वेद ऋचाओं का संकलन कर वेदों को चार भागों में बांटा था। उन्होंने ही महाभारत, 18 पुराणों व 18 उप पुराणों की रचना की थी जिनमें भागवत पुराण जैसा अतुलनीय ग्रंथ भी शामिल है। ऐसे जगत गुरु के जन्म दिवस पर गुरु पूर्णिमा मनाने की परंपरा है। प्राचीन काल से चले आ रहे इस पर्व का महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में यह दिन गुरु को सम्मानित करने का होता है। इस दिन मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं। इस दिन विद्यार्थियों को चाहिए कि अपने गुरु को वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। इस दिन केवल गुरु ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।

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